मन की नंगी आंख
मन की नंगी आंख से देख क़र जल रहा तू अंदर अंदर
ला शब्द जुबाँ पे बुझा तू गहन आग समंदर
देखा तूने सुना तूने चिंतन किया हर बात पर
निकला न निष्कर्ष कोई तो बढ़ आगे सच को पहचान कर
कर बहस तू मुर्ख से देख मुर्ख की आंख में
कर नमन खुद को और रहम कर अपने आप पे
मत रख पक्ष अपना तुन मुर्ख की बातों के बीच
बिन परामर्श तू अपनी ज्ञान की खेती सींच
न जीत तू हाथ से न जीत तू बात से
जीत तेरी है जीत में तू अगर है सचाई तेरी बात में
खटपट खटपट करके हर घट क्या जीत लिया तूने संसार
खोल नैन और कर आवर्तन छाया हर और घनघोर अंधकार
कहाँ जीत है कहाँ है हार किस से जीता किसे हराया
क्या जाने तू जीत को अगर हारा न तू एक भी बार ।
कवि :- नवीन भुक्कल
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